माता-पिता का ऋण

माता-पिता का ऋण

Jaibrato Bhowmick, X C (2019-20)

यह, निस्संदेह, जीवन के सबसे बड़े आलंकारिक प्रश्नों में से एक है। सच है, हमारे जीवन के प्रथम मुहूर्तों से, आखिरी साँस तक, हमारे माता-पिता ने हमारे लिए जितना किया है, अगर हम उसके बदले में उनके लिए कुछ करना भी चाहें, फिर भी, हम कितनी ही चेष्टा करें, हम उनका ऋण कभी नहीं चुका पाएँगे। कुछ इस ऋण को चुकाने का प्रयत्न जरूर करते हैं; और कुछ – कुछ तो मानो, उनके पंख लग जाते हैं, वे उड़कर चले जाते हैं, परन्तु पीछे मुड़कर उन दो इंसानों की तरफ़ नहीं देखते, जिन्होंने उन्हें उड़ना सिखाया था।

चाहे वह काम-धंधे और नौकरी के सिलसिले में हो, या पढ़ाई या उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए हो, या अपने पेशे, अपने ‘स्ट्रीम’ में सर्व श्रेष्ठ होने की कामना की वजह से ही हो, आज कई सालों से यह दिख रहा है कि हमारी युवा पीढ़ी नी उन्नति के कारण देश छोड़, विदेश में जाकर बस रही हैं। और इस फ़िराक में वे अपने वृद्ध माता-पिता को छोड़कर चले जाते हैं। उनकी सोच और उनका बहाना भी यह है कि काम-धंधे के कारण, व्यस्त जीवन-यापन की वजह से, वे अपने माता-पिता की देख-रेख नहीं कर पाएँगे, या फिर उनके माता-पिता विदेश में अपने आप को नहीं ढाल पाएँगे, वगैरह वगैरह। परन्तु, हमारे माता-पिता ने हमारे लिए जो किया हैं, उसके बदले में उनके प्रति इससे बड़ा अपमान भला हो सकता है? ये लोग अपने माता-पिता को वृद्धाश्रम में रखकर चले जाते हैं, फिर कभी उनकी हालत देखने भी नहीं आते, यह भी देखने नहीं आते कि उन्हें वहाँ किस हालत में रखा जाता है। वे सिर्फ प्रति महीने कुछ पैसे भेज देते हैं, जिससे वृद्धाश्रम की ‘फीस’ दी जाती है, या फिर जिससे इन वृद्धों को अपनी जिंदगी के आखिरी दिन गुजरने पड़ते हैं।

हमारे माता-पिता मानते हैं कि हम ही उनके अंधे की लाठी हैं। इसलिए जब उनके संतान पेशे की वजह से या जो भी हो, उन्हें छोड़कार चले जाते हैं, तब वे बड़े अकेले पड़ जाते हैं। वे मानसिक रूप से दुर्बल, अस्वस्थ या असुरक्षित हो जाते हैं। वार्धक्य के कारण वे इतने निस्तेज और शारीरिक रूप से अस्वस्थ, अपटु और कमजोर हो जाते हैं कि वे असुरक्षित महसूस करते हैं।

अपनी उन्नति के लिए विदेश जाकर पढ़ाई या नौकरी करना कोई गलत बात नहीं है, परन्तु इस चक्कर में अपने वृद्ध माता-पिता का प्रायः ‘त्याग’ करना, उनका अपमान करने से बढ़कर और कुछ नहीं है। एक उन्नत समाज होने हेतु, यह हमारा कर्त्तव्य बनता है कि हम इस समस्या के समाधान हेतु कदम उठाएँ। आखिरकार, कहा जाता है कि:-
“माता-पिता का वात्सल्य प्रेम पूरा होता है, चाहे वह कितनी बार ही बाँटा क्यों न जाए । “

सपना

Disha Mukherjee, IX B (2019-20)

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